मैंने प्रेमचंद से पहले फणीश्वर नाथ रेणु को पढ़ा और समझा था। स्कूल में शिक्षिका ने जब ‘पंचलैट’ सुनाया (पढ़ाया नहीं), तो बाल मन एक साथ ग्रामीण समाज और हिंदी साहित्य की ओर और ज्यादा आकृष्ट हुआ। प्रेमचंद और रेणु को पढ़ डालने के बाद नित नयी कहानियों को भी तलाशता रहता हूँ जो हिंदी साहित्य की पुरानी सामग्री लिए रहते हैं – गाँव, बैल, ज़मीदार, गरीब किसान, खेत, पगडंडी इत्यादि। चूँकि अपना परिचय एक देहाती व्यक्ति बताकर देता रहता हूँ, तो मेरा साहित्यिक रुझान भी उन कहानियों में भी है जो मूलतः ग्रामीण पृष्ठभूमि के होते हैं।
हृषिकेश सुलभ की ‘हलंत’
इसी तरह एक दिन हृषिकेश सुलभ जी द्वारा लिखित ‘हलंत’ नामक पुस्तक पर नज़र पड़ी। फेसबुक पर किसी ने टिपण्णी में भी इसे पठनीय बताया। किताब मंगवाकर पढना शुरू किया तो पहली कहानी में ही लगा कि जैसे पैसा वसूल हो गया!
हलंत अलग-अलग आँच पर पकाई गयी विभिन्न कहानियों का बेजोड़ संग्रह है जिसमे लेखक ने छः कहानियों का छक्का मारा है !
पहली कहानी ‘अगिन जो लागी नीर में’ में न तो आपको प्रेमचंद का गाँव नज़र आएगा और न ही रेणु का देहात. किसान, सूखे खेत, महाजन-मुखिया इत्यादि ही किसी ग्रामीण किस्सागोई का पर्याय हो – यह अब जरूरी नहीं। सुलभ जी अपने कहानी के लिए उस गाँव को चुना जो थोड़ी बहुत भौतिक प्रगति तो कर चूका है परन्तु मानसिकता अब भी वही है। गाँव की ही एक लड़की जो अब शहर जाकर पढाई करती है की अख़बार में ‘लाँगट-उघार’ तस्वीर आई तो पूरे गाँव में ख़बर बम फूट पड़ा। विस्फ़ोट इतना तीव्र की बच्चे-बुजुर्ग सभी जगहंसाई में जुट गए। कहानी फ्लैशबैक में जाकर टुन्नी मिसर और कहानी की नायिका के प्रेम प्रसंग को उजागर करती है जो अंत में फलित नहीं होती। इसी दौरान लेखक ने उन किरदारों को लाया जो पूरी कहानी को और प्रबल बनाती है। सुलभ जी का गाँव देखकर मुझे आज के उस ग्रामीण परिवेश की याद आती है जहाँ अब दू-लिटरा इसपराइट और कुरकुरे, चायनीज़ मोबाइल, हीरो होंडा, टाटास्काई, सरपट दौड़ती बोलेरो या अन्य ‘मॉडर्न’ सामग्री आम बात है। यहाँ अब युवक हिंगलिश आराम से बोल लेते हैं। ‘परपोजल’ और ‘एपरूभल’ शब्द पढ़कर बगल वाले मामा याद आ गए जिन्होंने पढाई तो की पर उतना तो नहीं पढ़ पाए की गाँव से बाहर जा सके। यह इक्कीसवीं सदी का गाँव है – प्रगतिशील परन्तु फिर भी पिछड़ा। कहानी का अंत न ही दुखद है और न सुखद। बस लगता है एक दो पन्ना और लम्बा होता – मन नहीं भरा ! लेखक ने गाँव समाज को बहुत करीब से देखा और समझा है, इस कहानी का रस वो पाठक और भी अच्छे से ले सकेंगे जिन्होंने खरंजा पर कभी साइकिल चलाई है।
बाँकी की कहानियाँ भी उतनी ही स्तरीय है। एक में गाँव के राजनैतिक उथल-पुथल के साथ हिंसात्मक पहलु दर्शाया गया है तो अगले में ‘लिव इन रिलेशन’। किसी में उस युवा की कहानी है जो नक्सली मान लिया जाता है (पुस्तक का नामांकरण भी इसी कहानी से हुआ है – हलंत) तो अगले में वो प्रोफेसर साहब है जो पद की गरिमा बनाये रखने में अक्षम रहते हैं। ‘हब्बी डार्लिंग’ मनोविकार से ओत-प्रोत है जिसमे एक स्त्री की लालसा दिखाई गयी है।
हिंदी में अब कुछ अच्छा नहीं छपता – हृषिकेश सुलभ की ‘हलंत’ इस भ्रांति को तोड़ती है
कुल मिलाकर ‘हलंत’ एक अच्छी किताब है
इस किताब में कुल 6 कहानियां है जो एक दुसरे से बिलकुल भिन्न है। कुछ गाँव से तो कुछ शहर से। हृषिकेश सुलभ यथार्थवादी कहानीकार हैं या कल्पना की उड़ान भर किस्से गढ़ते हैं, पाठकगण पढ़कर खुद ही तय कर सकते हैं। ‘हलंत’ को मैंने अपनी पुस्तकों की उस अलमारी में रखा है जहाँ प्रेमचंद और रेणु रचनावली पहले से जगह जमाये बैठी है! दोपहरिया में गाँव की सैर का मन बने तो उन दो कहानियों के लिए हाथ आप ही वहां पहुँच जाए!
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Topics Covered : Hrishikesh Sulabh, Halant, Hindi Stories, Book Review